डी. एल. एड. (तृतीय सेमेस्टर)
सप्तम प्रश्न-पत्र
संस्कृत
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न—वर्ण कितने
प्रकार के हाते हैं ?
उत्तर- वर्णों के प्रकार—मूल रूप से वर्ण दो प्रकार के होते हैं—स्वर और
व्यंजन। स्वर वर्णों का उच्चारण स्वतन्त्र रूपों से होता है किन्तु व्यंजन के
उच्चारण में स्वरों की सहायता लेनी पड़ती है। स्वरों को उच्चारित करने में जो समय
लगता है उसके आधार पर
(i)
ह्रस्व स्वर-अ, इ,
उ, ऋ और ल।
(ii)
दीर्घ स्वर—आ, ई,
ऊ, ऋ एवं ए, ऐ, ओ, औ।
(iii) प्लुत—जिन स्वरों के उच्चारण में
दीर्घ स्वर से भी अधिक समय लगता है वे प्लुत स्वर कहलाते हैं। इसके ज्ञान के लिए
हम हिंदी में ३ का अंक जैसा संकेत बना देते हैं।
आजकल
इसका प्रयोग प्रचलन में नहीं है परन्तु वैदिक संस्कृत में इसका प्रयोग पाया जाता
है;
जैसे—ओ३म।
उपर्युक्त स्वर
को उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित रूपों में भी उच्चरित किया जा सकता है। उदात्त में हम
वर्गों का उच्चारण उच्च स्वर में करते हैं। अनुदात्त में मंद (निचले भाग से) तथा स्वरित में मध्यम अर्थात् न बहुत
तीव्र और न बहुत मंद स्वर में करते हैं। अर्थात् यह दोनों का सम्मिश्रण स्वर है।
ये स्वर केवल वैदिक संस्कृत में प्रयुक्त होते हैं। ___
25 स्पर्श व्यंजनों को भी
वाग्यंत्रों के आधार पर 5 वर्गों में विभक्त किया सकता
(क)
कण्ठ्य —क्, ख, ग, घ, ङ् (क वर्ग) (ख) तालव्य-च् छ् ज् झ् ञ् (च वर्ग) (ग)
मूर्धन्य—ट् ठ् ड् ढ् ण् (ट वर्ग) (घ) दन्त्य-त् थ् द् ध् न् (त वर्ग) (ङ)
ओष्ठ—प् फ् ब् भ् म् (प
वर्ग)
अंत के चार अर्ध
स्वर—य
र ल व आदि तथा चार ऊष्म वर्ण–श ष, स,
ह आदि हैं।
प्रश्न-उच्चारण दोष के
प्रकार बताइए।
उत्तर_अलग-अलग लोगों का उच्चारण यद्यपि अलग-अलग प्रकार से होता
है किन्त कछ उच्चारण दोष अलग ही स्पष्ट ध्यान खींच लेते हैं। इस विषय में पाणिनी
ने स्पष्ट कहा है कि उच्चारण ऐसा नहीं होना चाहिए जो कि _
(1) जीभ दबा कर उच्चारण करना तथा वर्णों को मुँह में ही काट देना, (2) वणों को जल्दी-जल्दी बोलना। (त्वरित
दोष), (3) वर्णों को फेंकता हुआ बोलना। (निरस्त दोष), (4) एक-एक कर
बोलना। (विलम्बित दोष), (5) गद्-गद् स्वर में बोलना, (6) गा-गाकर
बोलना, (7) तुतलाकर अंदर ही अंदर बुदबुदाते हुए या वर्णों को
पीड़ित करते हुए बोलना, (8) अक्षरों एवं पदों को बीच-बीच में खा जाना, (9) दीन स्वर में बोलना,
(10) नाक के स्वर बोलना (11) मिमियाते हुए
स्वर में बोलना।
प्रश्न–अशुद्ध उच्चारण
के कारण बताइए।
उत्तर—अशुद्ध उच्चारण के प्रमुख
निम्न कारण हैं।
(1) शिक्षक का अनुकरण बहुत
से शिक्षक शब्दों का अशुद्ध उच्चारण करते हैं उनके विद्यार्थी भी उनका अनुकरण करते
हुए अशुद्ध बोलने लगते हैं।
(2) माता-पिता के अशिक्षित होने के कारण वे प्यार के कारण बालक के गलत बोलने पर भी
प्रसन्न हो जाते हैं और ध्यान नहीं देते। कभी-कभी शब्दों के
रूप से स्वयं भी अनभिज्ञ होते हैं।
(3) मनोवैज्ञानिक प्रभाव
कभी-कभी अशुद्ध बोलना हमारे मन की स्थिति; जैसे शंका, भय, झिझक या हीनता
के कारण भी विद्यार्थी बोलने में घबराते हैं और भाषा प्रवाह में अव्यवस्था उत्पन्न
हो जाती है।
(4) दुरभ्यास की आदत कभी-कभी गलत अभ्यास के कारण भी बालक अशुद्ध बोलता है पर वह समझता यही है कि वह
शुद्ध बोल रहा है।
(5) शब्दों का लोप जैसे
मैंने कहा कि स्थान पर 'मैनेकई' बोल
देते हैं।
(6) सामासिक प्रभाव के
कारण–अवधी में तो 'श' का उच्चारण ही नहीं है वे लोग भी कभी-कभी 'शशि' का उच्चारण ‘ससि' ही करते हैं। .. (7) अनावश्यक शब्दों का आगम भी
उच्चारण दोष का कारण कभी-कभी होता है। जैसे स्पर्श का
उच्चारण इस्पर्श करते हैं।
(8) उच्चारण शिक्षा पर ध्यान न देने के कारण भी छात्र अशुद्ध बोलते रहते (9)
अज्ञानता वश भी लोग आशीर्वाद को आर्शीवाद बोलते रहते हैं।
प्रश्न-उच्चारण
सम्बन्धी त्रुटियों का निराकरण किस प्रकार किसान सकता है ?
उत्तर—उच्चारण सम्बन्धी
त्रुटियों के निराकरण हेतु निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक
1. ध्वनि तत्व का ज्ञान—अक्षर ज्ञान, उचित ध्वनि, निर्गम, बलाघात,
स्वराघात. विश्राम, स्वर
माधुर्य, ध्वनियों का ज्ञान आदि होना चाहिए, (2) कठिन शब्दों के शुद्ध उच्चारण का अभ्यास, (3) अशुद्ध
उच्चारण वाले शब्दों की सूची बनाकर, (4) प्रतियोगिताओं का
आयोजन करके, (5) शुद्ध उच्चारण के प्रति सतर्कता बरतकर,
(6) अक्षरों और भाषाओं का उचित ज्ञान देकर, (7) उच्चारण सम्बन्धी परीक्षाओं का प्रबन्ध करके, (8) ग्रामोफोन,
टेप आदि के प्रयोग करके,(9)वैयक्तिक दोषों को
इंगित करके, (10) संस्कृत सामाजिक पदों का पढ़ाने का अभ्यास
कराकर।
प्रश्न—सन्धि क्या है ?
इसके कितने भेद हैं ? समझाइए।
उत्तर–सन्धि = जोड़ या मिलाना। दो वर्णों की अत्यन्त निकटता के कारण उनका जो योग होता है,
उसी को 'सन्धि' कहा जाता
है अर्थात् व्यवधान रहित दो वर्णों की अधिक समीपता के कारण उत्पन्न विकार को ही 'सन्धि' कहा जाता है। यथा—
देव + आलयः = देवालयः सन्धि के मख्य रूप से तीन भेद हैं
(1) अच् सन्धि या स्वर सन्धि,
(2) हल् सन्धि या व्यंजन सन्धि,
(3) विसर्ग सन्धि।
1. अच् सन्धि या स्वर-सन्धि–परस्पर दो स्वर
वर्णों (स्वर + स्वर) की अत्यन्त निकटता से दोनों स्वरों के रूप में होने वाले परिवर्तन (विकार) को ही 'स्वर-सन्धि' कहा जाता है।
यथा—विद्या + आलयः = विद्यालयः।
स्वर सन्धि के सात भेद प्रचलित हैं, जिनमें से मुख्य चार
भेदों का निरूपण किया जायेगा। वे हैं—
(1) दीर्घ सन्धि,
(2) गुण सन्धि,
(3) वृद्धि सन्धि,
(4) यण् सन्धि।
(1) दीर्घ स्वर सन्धि (अकः सवर्णे दीर्घः)—जब हृस्व या दीर्घ (अ, इ, उ, ऋ) के बाद हृस्व या दीर्घ (अ,
इ, उ, ऋ) आते हैं तो दोनों मिलकर दीर्घ (आ, ई, ऊ, ऋ) हो जाते हैं; जैसे
अ + अ = आ—मत + अनुसार = मतानुसार
अ + आ = आ—शिव + आलयः = शिवालयः
आ + आ = आ–महा + आत्मा = महात्मा
इ + इ = ई-रवि + इन्द्रः = रवीन्द्रः
ई + ई = ई रजनी + ईशः = रजनीशः
ऊ + उ = ऊ—वधू + उत्सवः = वधूत्सवः
ऊ + ऊ = ऊ—भू + उधर्वम् =भूधर्वम्।
(2) गुण सन्धि (आद गुणः) अ अथवा आ के बाद इ/ई आने पर ए, उ/ऊ आने पर ओ,
ऋ आने पर अर् तथा ल आने अल हो जाता है। जैसे
अ + इ = ए—देव + इन्द्रः = देवेन्द्रः
अ + ई = ए—गण + ईशः = गणेशः
अ + उ = ओ—सूर्य + उदयः = सूर्योदयः
आ + उ = ओ—महा + उत्सवः = महोत्सवः
अ + ऋ = अर्—देव + ऋषिः = देवर्षिः ।
(3) वृद्धि सन्धि (वृद्धिरेचि)-अ अथवा आ के बाद एच्
प्रत्याहार आने पर उनकी वृद्धि हो जाती है; जैसे—
अ + ए = ऐ—एक + एकः = एकैकः
आ + ए = ऐ तथा + एव = तथैव।
अ + ओ = औ—वन + ओषधिः = वनौषधिः .
आ + ओ = औ महा + ओजस्वी = महौजस्वी।
(4) यण सन्धि (इकोयणचि) जब किसी इक प्रत्याहार (इ, उ, ऋ, लु) के बाद सवर्ण स्वरों के अतिरिक्त कोई असमान स्वर
आता है तो उनके स्थान पर क्रमशः यण् प्रत्याहार (य, व, र, ल) हो जाते हैं; जैसे—
ड + अ = य–ति + अधिकः = अत्यधिकः .
ड + आ = य-हात + आदि = इत्यादि।
इ + उ = य_इति + उवाचः = इत्युवाचः
इ + ए = य—प्रति + एकम् = प्रत्येकम्
ऋ + आ = र—पितृ + आदेशः = पित्रादेशः
नोट—इसी प्रकार
अन्य उदाहरणों के विषय में समझना चाहिए।
2. हल सन्धि या व्यञ्जन सन्धि–जहाँ किसी व्यञ्जन का किसी बाद वाले व्यञ्जन
वर्णों के साथ मेल होता है तथा परस्पर मिलने से जो परिवर्तन होता है, उसे व्यञ्जन सन्धि कहते हैं।
3. विसर्ग सन्धि–जहाँ (:) से परे किसी
स्वर या व्यञ्जन के होने पर जो विकार उत्पन्न होते हैं, उसे
विसर्ग सन्धि कहते हैं।
·
प्रश्न-समास का क्या
अर्थ है ? समास विग्रह को समझाइए।
या
द्वन्द्व
समास किसे कहते हैं ? इसके कितने भेद होते हैं ? (डी. एल.
एड. 2016)
या
द्विगु
समास किसे कहते हैं ? सोदाहरण समझाइए। (डी. एल. एड. 2017)
उत्तर–समास शब्द का अर्थ है-संक्षेप अर्थात् दो या दो से अधिक शब्दों के अर्थ में परिवर्तन किए बिना
आकार में छोटा रूप प्रदान करना। भाषा में संक्षिप्त भाव और सुन्दरता लाने के लिए समास का प्रयोग किया जाता है।
दो या दो से अधिक सार्थक शब्दों को
मिलाकर एक समस्त सार्थक, स्वतन्त्र शब्द बने तो उसे समास कहते हैं। जैसे—शुष्कपत्राणि, नवपुष्पाणि, मधुरस्वरैः।
समास विग्रह समास के शब्दों को अलग-अलग करके लिखना समास
विग्रह कहलाता है। जैसे—शुष्काणि पत्राणि, नवानि पुष्पाणि, मधुरैः, स्वरैः।
समास विग्रह करने की दूसरी विधि इसी प्रकार है। शुष्काणि (च
तानि) पत्राणि, नवानि (च तानि) पुष्पाणि, मधुरः (च सः) स्वरः मधुर स्वरः (तैः)। समास विग्रह करते समय प्रथम पद को विभक्तियुक्त करके लिखा जाता है।
समास के भेद
संस्कृत में समास पाँच प्रकार
के होते हैं (समासः पञ्चधा)
1. केवल समास,
2. द्वन्द्व समास,
3. तत्पुरुष समास,
4. बहुब्रीहि समास,
5. अव्ययीभाव समास
द्विगु तथा कर्मधारय समास तत्पुरुष समास
के ही भेद माने जाते हैं। यहाँ प्रमुख समासों का परिचय दिया जा रहा है
1. द्वन्द्व समास (चार्थे
द्वन्द्वः) इस
समास के दोनों ही पद प्रधान होते हैं। दोनों पदों के सम्बन्ध जोड़ने के लिए 'च' का प्रयोग किया जाता है। द्वन्द्व का अर्थ है—दो।
जैसे—पितरौ = माता च पिता च। रामकृष्णौ = रामश्च कृष्णश्च।
द्वन्द्व समास के भेद द्वन्द्व समास तीन
प्रकार के होते हैं
i.
इतरेतर द्वन्द्व,
ii.
समाहार द्वन्द्व
iii.
एकशेष द्वन्द्व।
iv.
2. द्विगु समास (संख्यापूर्वो
द्विगुः) जिसका पहला पद संख्यावाचक तथा दूसरा पद संज्ञा होता है, उसे द्विगु समास कहते हैं। इस समास का प्रयोग समूह अर्थ में होता है। जैसे
त्रयाणां लोकानां समाहारः = त्रिलोकी। दशानां आननाम् समाहारः
= दशाननम्। पंचानां घटानां समाहारः = पंचवटी।
त्रयाणं भुवनानाम् समाहारः = त्रिभुवनम्।
इसके तीन भेद माने जाते है—समाहार,
तद्वितार्थ तथा उत्तरपद द्विगु।
3. कर्मधारय समास—जो सामासिक पद विशेषण,
विशेष्य व उपमा, उपमेय से मिलकर बनते हैं,
वे कर्मधारय समास कहलाते हैं। इसमें दोनों पद प्रधान होते हैं तथा
एक समान-विभक्ति एवं वचन वाले
होते हैं। जैसे—नीलकमलम्, महाजनः,
महापापः इत्यादि। इसे 'समानाधिकरण तत्पुरुष'
भी कहते हैं।
कर्मधारय समास के चार रूप होते हैं
i.
विशेषण कर्मधारय
ii.
उभयपद विशेषण कर्मधारय ..
iii.
रूपक कर्मधारय
(iv) उपमान कर्मधारय।
4. तत्पुरुष समास (प्रायेणोत्तरपद प्रधान: तत्पुरुषः) तत्पुरुष समास में उत्तरपद प्रधान होता है। प्रथम
पद में द्वितीय से लेकर सप्तमी तक की विभक्तियाँ लगती हैं। इसका विग्रह विभक्ति के
अनुसार ही किया जाता है। जैसे—राजपुत्रः, राजमन्दिरम् आदि।
तत्पुरुष के भेद- तत्पुरुष समास के
द्वितीया से लेकर सप्तमी विभक्ति तक छः भेद हैं
द्वितीया तत्पुरुष—इसके पहले पद में
द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। उत्तरपद में 'क्त्'
प्रत्यान्त होता है। जैसे—गजम् आरूढ़ः =
गजारूढ़। शरणं + आपन्नः= शरणापन्नः। कृष्ण + श्रितः = कृष्णश्रितः।
ग्राम + गतः = ग्रामगतः।
तृतीया तत्पुरुष—इसके पहले पद में तृतीय
विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे— धनेन हीनाः = धनहीनाः। मासेन पूर्वः = मासपूर्वः। आचारेण कुशलः =
आचारकुशलः। हरिणा त्रातः = हरित्रातः।
नोट—इसी प्रकार अन्य भेद
समझने चाहिए।
5. बहुब्रीहि समास—इसमें दोनों पद प्रधान होते हैं तथा दोनों
पद किसी तीसरे पद की विशेषता बताते हैं; जैसे—दशाननः।
भेद बहुव्रीहि समास के मुख्य दो भेद होते
हैं
. .
(i)समानाधिकरण, एवं
(ii) व्यधिकरण।
6. अव्ययीभाव समास (प्रायेणपूर्वपदप्रधानः अव्ययीभावः) इसमें पहला पद अव्यय (उपसर्ग) होता है और यहीं प्रधान होता है। दूसरा पद
संज्ञा शब्द होता है। इसका विग्रह उस अव्यय या उपसर्ग के अर्थ के अनुसार किया जाता
है। समस्त पद नपुंसकलिंग एकवचन में होता है। इसके रूप नहीं चलते हैं। यह विभिन्न
अर्थों के लिए प्रयोग किया जाता है। जैसे
(क) विभक्ति—अधि + हरौ इति = अधिहरि।
(ख) सामीप्य
(समीपता)—कृष्णस्य समीपम् = उपकृष्णम्।
(ग) समृद्धि
(सम्पन्नता)-मद्राणा समृद्धि = सुमद्रम्।
(घ) अभाव
(न होना)–'निर' मक्षिकाणाम्
अभावः = निर्मक्षिकम्।
(ङ) शब्द
प्रादुर्भाव के अर्थ में 'इति' हरि =
शब्दस्य प्रकाशः = इतिहरि।
(च) योग्यता
(योग्य होना)—'अनु' गुणस्य योग्यम्= अनुगुणम्।
प्रश्न
कारक क्या हैं ? इसके भेद बताइए। ..
उत्तर—'करोतीति कारकः' अर्थात् क्रिया के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखने वाले शब्दों को कारक कहते हैं।
कारक के भेद
संस्कृत में मुख्य छ: कारक होते हैं। सम्बन्ध को कारक नहीं मानते हैं, क्योंकि उनका क्रिया से साक्षात् सम्बन्ध नहीं होता है। सम्बोधन की प्रथमा
विभक्ति के आने के कारण इसको इसी का ही एक रूप माना जाता है।
प्रश्न—कर्म कारक (द्वितीया विभक्ति) को समझाइए।
उत्तर–कर्ता जिसको अत्यधिक
चाहता है, उसे कर्म कारक कहते हैं। इसमें द्वितीया विभक्ति
होती है। इसका चिह्न 'को' है। यह चिह्न
'को' कभी-कभी
छिपा रहता है। जैसे राम पुस्तक पढ़ता है। रामः पुस्तकम् पठति। यह जयपुर जायेगा। सः
जयपुरम् गमिष्यति। हम सब विद्यालय जाते हैं। वयम् विद्यालयम् गच्छामः। पर्यटकः
मरुदेशम् प्रतिगच्छति।
आतपत्रम् विना
बहिर्गन्तुं न शक्नुवन्ति।
द्वितीया
विभक्ति का प्रयोग
1. द्विकर्मक धातुओं के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
प्रश्न—सम्बन्ध कारक (षष्ठी विभक्ति) को प्रयोग सहित समझाइए।
उत्तर—संज्ञा या सर्वनाम के जिस
रूप में एक वस्तु का दूसरी वस्तु से सम्बन्ध ज्ञात हो, उसे
सम्बन्ध कारक कहते हैं। इसका चिह्न ‘का, के, की' है। जैसे—रामस्य पुस्तकं अस्ति। दशरथस्य पुत्रः रामः अस्माकं हृदय-सम्राट अस्ति।
षष्ठी
विभक्ति का प्रयोग
1. सम्बन्ध कारक में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे—कृष्ण
वसुदेवस्य पुत्र आसीत्।
2. हेतु शब्द के साथ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। जैसे—अहम् अध्यनस्य हेतोः वसामि।
3. कृत् प्रत्यय से बनी हुई संज्ञाओं के कर्ता और कर्म में षष्ठी विभक्ति
होती है।
जैसे—तुलसीदासः, रामचरित्रमानस्य रचयिता अस्ति।
4. स्मरण अर्थ की धातुओं के साथ कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे—पितुः स्मरति।
5. बहुतों में से एक को सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए षष्ठी और सप्तमी, दोनों विभक्तियों का प्रयोग होता है। जैसे मनुष्याणां रामः श्रेष्ठ आसीत्।
प्रश्न—अधिकरण कारक (सप्तमी विभक्ति) को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
'आधारोऽधिकरणम्'
अर्थात् कर्ता तथा कर्म के सम्बन्ध से क्रिया का
आधार अधिकरण
कारक होता है। इसमें सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे
—राम:
विद्यालये पठति (राम विद्यालय में पढ़ता है)।
सप्तमी
विभक्ति का प्रयोग
1. 'साध्वसाधु प्रयोगे' सूत्र से साधु तथा असाधु के
प्रयोग में सप्तमी विभक्ति
का प्रयोग होता
है; जैसे—साधु:कृष्णो मातरि।
असाधुः कृष्णो मातुले।
2. निमित्तात् कर्मयोगे—सूत्र से निमित्त वाचक शब्दों
में सप्तमी विभक्ति होती है; जैसे केशेषु चमरी हन्ति। इसी
प्रकार अन्य उदाहरणों को समझना चाहिए।
प्रश्न—प्रत्याहार
किसे कहते हैं ? किसी एक प्रत्याहार को सोदाहरण समझाइए।
उत्तर—माहेश्वर सूत्रों में जो
चौदह प्रत्याहार सूत्र हैं उनको संक्षेप में करने के
लिए प्रत्याहार
का प्रयोग किया जाता है। 14 माहेश्वर सूत्रों से 42 प्रत्याहार
निर्गत हुए हैं। अण् प्रत्याहार में आने वाले वर्ण हैं—अ,
इ, उ, ण।
प्रश्न–किन्हीं दस
नैतिक वाक्यों का अर्थ सहित वर्णन करें।
उत्तर—1. "महियांसः
प्रकृत्या मितभाषिणः।"
अर्थ—सज्जन लोग स्वभाव से ही
मधुरभाषी होते हैं।
2. "ज्ञान-भारं क्रियां बिना।"
अर्थ उपयोग में न आने वाला ज्ञान भार के
समान होता है।
3. "कर्त्तव्यं
हि सतां वचः।"
अर्थ- —सज्जन पुरुषों की बात
को मानना चाहिए।
4. "विभूषणं
मौनपण्डितानाम्।"
अर्थ मूल् का सबसे बड़ा गहना (आभूषण) चुप रहना ही है।
5. 'समय एव
करोति बलाबलम्।"
अर्थ—समय ही मनुष्य को सबल और
निर्बल बनाता है।
6. "सत्यं
ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।"
अर्थ सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए,
अप्रिय सत्य को नहीं बोलना चाहिए।
7. "हितं
मनोहारि च दुर्लभं वचः।
अर्थ- हितकारी और प्रिय लगने
वाली बात एक साथ सम्भव नहीं होती है।
8. “यत्र नार्यस्तु
पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।"
अर्थ जहाँ नारियाँ पूजी जाती हैं, वहाँ देवता निवास करते
हैं।
9. "अविवेकः
परमापदां पदम्।"
अर्थ अज्ञान समस्त आपत्तियों का आधार है।
10. "विद्या
धर्मेण शोभते।"
अर्थ विद्या धर्म से ही शोभा देती है।
प्रश्न-वन्दना से जुड़े
कोई दो श्लोक भावार्थ सहित लिखिए।
उत्तर- (i) मातृभूमे! नमो मातृभूमे! नमः।
मातृभूमे! नमो मातृभूमे! नमः।
भावार्थ-
हे मातृभूमि! तुम्हें नमस्कार है। हे
मातृभूमि! तुम्हें नमस्कार है।
(ii) तव गिरिभ्यो नमस्ते
नदीभ्यो नमः।
तव वनेभ्यो नमो जनपदभ्यो नमः।।
भावार्थ
हे मातृभूमि! तेरे पर्वतों को नमस्कार
है, तेरी नदियों को नमस्कार है।
तेरे वनों को नमस्कार है और तेरे जनपदों (प्रान्तों) को नमस्कार है।
प्रश्न—किसी एक वैदिक
वन्दना श्लोक का अनुवाद सहित वर्णन करें।
उत्तर- तेजोऽसि तेजो मयि धेहि,
वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि,
बलमसि बलं मयि धेहि,
ओजोऽसि ओजो मयि धेहि। (यजुर्वेद 1979)
भावार्थ-
हे ईश्वर ! तुम तेज स्वरूप हो,
अत: मुझ में तेज स्थापित करो। तुम शक्ति
स्वरूप हो, अतः मुझ में शक्ति
स्थापित करो। तुम सामर्थ्यवान् हो, अतः मुझ में
सामर्थ्य स्थापित करो। तुम ओज स्वरूप हो, अत: मुझ में ओज स्थापित करो।
प्रश्न-वन्दना के एक
श्लोक का अनुवाद सहित वर्णन करें।
उत्तर- यदा यदा हि धर्मस्य
ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्
।।
हिन्दी अनुवाद हे भारत ! (अर्जुन) जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है,
तब-तब मैं अपने आपको प्रकट करता हूँ। अर्थात्
साकार रूप में अवतरित होता हूँ।
प्रश्न
विद्यालय पर संस्कृत में दो वाक्य लिखिए। (डी. एल.
एड. 2017)
उत्तर-(1) विद्यालयाः शिक्षायै
भवति।
(2) छात्राः पठनाय
विद्यालयं गच्छन्ति।
प्रश्न- निम्नलिखित को
समझाइए-
(i) सुलेख, (ii) अनुलेख, (iii) श्रुत
लेख।
उत्तर-(i) सुलेख लिखित
अभिव्यक्ति में लिखना एक कला है, अत: लिखने
का उचित अभ्यास होना चाहिए। बालक ठीक गति-यति से लिखें।
(ii) अनुलेख–अनुलेख का अर्थ है जैसा लिखा गया है ठीक वैसा ही लिखना। इसे सुलेख भी कहा |
है इसके लिए अभ्यास पुस्तिकाएँ आती हैं जिसमें प्रत्येक पृष्ठ के
ऊपर एक पंक्ति में मोटे रूप में सुन्दर ढंग से शब्द या वाक्य लिखा होता है तथा इस
वाक्यांश के नीचे रिक्त पंक्तियाँ होती हैं। इन पंक्तियों पर ऊपर वर्णित पंक्ति को
देखकर अक्षर व शब्द लिखना है। यह क्रिया बालक स्वयं करता है तथा स्वतः ही देखकर
उसे उसी अनुरूप में बनाने की कोशिश करता है।
(iii) श्रुत लेख–श्रुत का अर्थ है सुनना अर्थात् सुनकर उसी बात को लिखना। यहाँ अध्यापक
बोलता जाता है तथा बालक उसके द्वारा बोले गये वाक्यों में बोली गयी सामग्री को
लिखित रूप में व्यक्त करता है, इसे ही श्रुत लेख कहते हैं।
प्रश्न—निम्नलिखित
श्लोक का अर्थ लिखिए- (डी. एल. एड. 2017)
नैनं
छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।
न
चैनं क्लेदयन्तापो, न शोषयति मारुतः॥
उत्तर—श्लोक का हिन्दी अनुवाद-
इसको (आत्मा को) न तो शस्त्र काट सकते हैं (और) न इसे अग्नि जला
सकती है, न जल इसे गीला कर सकता
है (और) न वायु इसको सुखा सकती है।
अर्थात् यह (आत्मा) सदा विकार रहित स्थिति में रहती है।
प्रश्न- -निम्नलिखित
श्लोक का हिन्दी अर्थ लिखिए-
अभिवादनशीलस्य
नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि
तस्य वर्द्धन्ते, आयुर्विद्या यशोबलम्।
उत्तर—अभिवादनशील और नित्य
बड़ों की सेवा करने वालों की आयु, विद्या,
यश और बल ये चार बढ़ते हैं।
प्रश्न—निम्नलिखित
श्लोक का हिन्दी में अर्थ लिखिए-
(डी. एल. एड.
2018)
तेजोऽसि तेजो मयि धेहि,
वीर्यमसि वीर्य मयि धेहि,
बलमसि बलं मयि धेहि,
ओजोऽसि ओजो मयि धेहि।
उत्तर-हे ईश्वर! तुम तेज स्वरूप हो। अतः मुझमें तेज स्थापित करो। तुम शक्ति
स्वरूप हो अत: मुझमें शक्ति स्थापित
करो। तुम सामर्थ्यवान हो अत: मुझमें सामर्थ्य
स्थापित करो। तुम ओज स्वरूप हो मुझ में
ओज स्थापित करो।
प्रश्न
निम्नलिखित श्लोक का हिन्दी में भाव स्पट कीजिए- (डी. एल. एड. 2019)
पृथिव्यां लीणि रत्नानि
जलमन्नं सुभाषितम्।
मूडैः पाषाण-खण्डेषु रत्न
संज्ञा विधीयते॥
उत्तर—पृथ्वी पर तीन ही रत्न
हैं—जल, अन्न और अच्छे वचन, फिर भी मूर्ख
पत्थर के टुकड़े को रत्न कहते हैं।
प्रश्न–किन्हीं दस
वाक्यों का हिन्दी से संस्कृत अनुवाद कीजिए।
उत्तर- हिन्दी से संस्कृत
अनुवाद
1. वह कान से
बहरा है।
सः श्रवणेन वधिरः अस्ति ।
2. वृक्ष से
पत्ते गिरते हैं।
वृक्षात् पत्राणि पतन्ति ।
3. वह ब्राह्मण
को दान देता है।
ब्राह्मणाय दानं ददाति ।
4. राधा गणेश
को नमस्कार करती
राधा गणेशाय नमः करोति ।
5. मैं राम के
घर जा रहा हूँ।
अहम् रामस्य गृहम् गच्छामि।
6. मोहन सोहन
के साथ गाँव जाता है।
मोहनः सोहनेन सह ग्रामं गच्छति ।
7. हमारे देश
में छः ऋतुएँ होती हैं।
अस्माकं देशे षड्ऋतवः भवन्ति।
8. परमेश्वर का
भजन करो।
परमेश्वरं भज।
9. रात में
चाँद निकलता है।
रात्रौ मयंक: उदयति।
10. कमल जल में
खिलता है।
कमलं सलिलं विकसति।
प्रश्न—निम्नलिखित
वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद करिये- (डी. एल. एड. 2017)
(1) बाग के चारों
ओर जल है।
(2) मोहन लता
के साथ जाता है।
(3) राम के
द्वारा पुस्तक पढ़ी जाती है।
(4) वह श्याम
से अधिक मोटा है।
उत्तर-हिन्दी से संस्कृत अनुवाद-
(1) उद्यानम् परितः जलं
अस्ति।
(2) मोहन लतायाः सह
गच्छति।
(3) रामेण पुस्तकम् पठति।
(4) स: श्यामेण अत्यधिक स्थूलाः अस्ति।
प्रश्न निम्नलिखित वाक्यों का
संस्कृत में अनुवाद कीजिए.
(1) मुँह धो
लो।
(2) वह गाय से
दूध दुहता है।
(3) वे दोनों
विद्यालय जाते हैं।
(4) लता गाँव
जाती है। (डी. एल. एड. 2017)
उत्तर- (1) मुखम् प्रक्षालयत
(2) सः धेन्वा दुग्धम्
दुहति।
(3) तौ विद्यालयं गच्छतः
(4) लताः ग्रामम् गच्छति।
प्रश्न—निम्नलिखित
वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद कीजिए- (डी. एल. एड. 2018)
(1) छात्र चला
गया।
(2) यह घर
सुन्दर है।
(3) मैं चित्र
को देखता हूँ।
(4) गुरु को
नमस्कार है।
उत्तर- हिन्दी से संस्कृत
अनुवाद
(1) छात्रः अगच्छत्।
(2) गृहम् सुन्दरम् अस्ति।
(3) अहम् चित्रम् पश्यामि।
(4) गरुवे नमः।
प्रश्न- —निम्नलिखित
वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद लिखिए- (डी. एल. एड. 2019)
1. तुम सब कहाँ
जाते हो?
2. राम के साथ
लक्ष्मण भी वन गए।
3. सूर्य को
नमस्कार है।
4. वृक्ष से
पत्ते गिरते हैं।
उत्तर- 1. यूयम् कुत्र गच्छथ ?
2. रामेण सह लक्ष्मणः अपि
वनम् अगच्छत।
3. सूर्याय नमः।
4. वृक्षात् पत्राणि
पतन्ति।
प्रश्न–किन्हीं दस
वाक्यों का संस्कृत से हिन्दी अनुवाद कीजिए।
उत्तर- संस्कृत से हिन्दी
अनुवाद
1. देवदत्त:
हरिं भजति।
देवदत्त हरि को भजता है।
2. श्यामेन
ग्रन्थः पठ्यते।
श्याम से ग्रंथ पढ़ा जाता है।
3. स: गां दोग्धि पयः।
वह गाय से दूध दुहता है।
4. हरि:
बैकुण्ठम् अधिशेते (अधितिष्ठति)
हरि बैकुण्ठ में सोते हैं।
5. हरिः बैकुण्ठम्
अधिवसति (आवसति)।
हरि बैकुण्ठ में रहते हैं।
6. सर्वतः गुरु
छात्राः।
गुरु के सब ओर छात्र हैं।
7. शालाम्
परितः उद्यानम्।
पाठशाला के चारों ओर बगीचा है।
8. ग्रामं
निकषाः (समीपा) नदीः।
ग्राम के पास नदी है।
9. अन्तरा
त्वां मां हरिः।
तेरे-मेरे बीच में हरि है।
10. मासम्
अधीते हरिः।
हरि महीने भर तक पढ़ा।
प्रश्न-उपसर्ग क्या है
? इनका धातुओं के साथ उपयोग किस प्रकार सुनिश्चित किया जा
सकता है ?
उत्तर–परिभाषा—ऐसे शब्दांश जो शब्द के पूर्व में जुड़कर उसके अर्थ में परिवर्तन
कर देते हैं, कहीं-कहीं विशेषता ला देते हैं और कहीं मात्र शोभावर्द्धक होते हैं, वे 'उपसर्ग'
कहलाते हैं। जैसे—'हार' शब्द के पूर्व अलग-अलग उपसर्ग लगाने से उसके भिन्न-भिन्न
अर्थ प्रकट होते हैं प्र + हार = प्रहार। वि + हार = विहार। आ +
हार = आहार आदि।
संस्कृत में उपसर्गों की संख्या 22 है—प्र, परा, अप, सम, अनु, अव, निस्, निर्,
दुस, दुर, वि. आङ (आ), नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्, अभि, प्रति, परि, उप।
"धात्त्वर्थ
बाधते कश्चित् कश्चित् तमनुतते।
तमेव विशिष्टमष्टमन्य उपसर्ग
गतिस्ब्धिा॥"
धातुओं के साथ उपसर्ग लगाने से
तीन परिवर्तन सम्भव हैं-
1. क्रिया के अर्थ का
बदलाव।
जैसे—विजयः, पराजयः, अपकार;, उपकारः,
आहारः,विहारः।
2. क्रिया के अर्थ में
विशिष्टता आ जाती है।
जैसे—गमनम्-अनुगमनम्।
3. क्रिया के अर्थ में
सुधार।
जैसे—वसति-अधिवसति।
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